कितना बदला है पहाड़ों का हाल?

कितना बदला है पहाड़ों का हाल?
अस्कोट-आराकोट अभियान 2004

21वीं शताब्दी में प्रवेश कर चुके भारत में आजादी के 57 साल बाद भी गरीबी हटाओ, भारत उदय, इण्डिया शाइनिंग जैसे दिवा स्वप्न के बीच आगे बढ़ रहे जनतंत्र में ग्रामीण भारत आज भी अपने मौलिक अधिकारों से कितना वंचित है यह हकीकत सामने रखते हैं नवोदित हिमालयी राज्य उत्तरांचल के अधिसंख्य दूरस्थ दुर्गम अंचल।

हुकुम सिंह रुधो गले से अभी कुछ वर्ष पूर्व की एक घटना बयान करते हैं कि नन्दा देवी के मेले से लौटते हुए शम्भू नदी पर बनाये गये लट्ठे के पुल के टूट जाने से उनके गाँव की दो गर्भवती महिलाएँ तथा एक आठ वर्ष की बच्ची और वह स्वयं नदी में गिर गये थे। बच्ची को वह अपनी छाती में चिपकाये काफी दूर तक बहते चले गये और अन्ततः वह बच्ची उनके हाथ से छूट गयी और इस तरह तीनों कैसे काल का ग्रास बने।

2187 मीटर की ऊँचाई पर बसे बागेश्वर जिले के समडर, बोरबलड़ा, भरणकाण्डे जैसे गाँव 21वीं सदी में भी आदम जीवन जीने को विवश हैं। समडर गाँव के हुकुम सिंह रुधो गले से अभी कुछ वर्ष पूर्व की एक घटना बयान करते हैं कि नन्दा देवी के मेले से लौटते हुए शम्भू नदी पर बनाये गये लट्ठे के पुल के टूट जाने से उनके गाँव की दो गर्भवती महिलाएँ तथा एक आठ वर्ष की बच्ची और वह स्वयं नदी में गिर गये थे। बच्ची को वह अपनी छाती में चिपकाये काफी दूर तक बहते चले गये और अन्ततः वह बच्ची उनके हाथ से छूट गयी और इस तरह तीनों कैसे काल का ग्रास बने। आधे से ज्यादा गाँव पूरी रात नदी की दूसरी तरु जंगल में बैठा रहा। साहब यह सब तो शम्भू नदी में आम बात है। हम कैसे अपने बच्चों को पढ़ायें, कैसे इतने दूर भेजें न जाने कब नदी चढ़ जाय, कब भालू हमला कर दे। यहाँ के बच्चे पढ़ना चाहते हैं लेकिन नजदीक के गाँवों में शिक्षा की ठीक व्यवस्था नहीं है। शिक्षा का मुद्दा यहाँ की महिलाओं के लिए बहुत ही भावुक है। अपनी लड़कियों को स्कूल न भेज पाने का दर्द उनकी आँखों से आँसुओं के रूप में टूट पड़ता है। एक माँ से ये पूछने पर कि वह अपनी लड़की को स्कूल क्यों नहीं भेजती, तो वह भावुक होकर बताती हैं कि यहाँ पर स्कूल की सुविधा नहीं है। यहाँ तक कि प्रायमरी पाठशाला से ऊपर एकमात्र इण्टर कॉलेज बदियाकोट में है। लेकिन यहाँ जाने के लिए 35 किमी. पैदल चलना पड़ता है। वह आगे बताती हैं, साहब हमारी आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि हम अपनी लड़कियों को वहाँ कमरा लेकर पढ़ा सकें और लड़की जात को इतनी दूर भेजें भी तो कैसे? रोज घर से तो आना-जाना नहीं कर सकतीं।

लड़कियाँ भी पढ़ाई करना चाहती है। समडर गाँव की लड़कियाँ अपने मन की बात बताते हुए रो पड़ती हैं। 14 साल की विमला बताती है कि उसका पढ़ने को बहुत मन करता है, लेकिन उसके माँ-बाप की आर्थिक हालत ऐसी नहीं कि उसे स्कूल भेज सकें। इसलिए उसने 5वीं के बाद स्कूल छोड़ दिया और अब वह एक दुकान चलाती है। जिससे वह अपने परिवार का खर्च चला रही है। अभी भी वह पढ़ना चाहती है लेकिन गरीबी की वजह से दुकान का काम छोड़ नहीं सकती। लेकिन अब विमला के भाई-बहन स्कूल जाते हैं। ये व्यथा केवल विमला की ही नहीं है मल्ला दानपुर इलाके की आम लड़की का दर्द है।

aaa_2004_image_035 समडर की समस्यायें केवल समडर तक सिमटी हों ऐसा नहीं है। ऐसे दुख पहाड़ों के दूरस्थ गाँवों का दैनिन्दन जीवन है। अस्कोट-आराकोट अभियान 2004 का दल जब चमोली जिले के सड़क से 41 किमी. दूर के सीमान्त गाँवों हिमनी पहुँचा तो उसे एक अलग ही कहानी देखने को मिली। दरअसल हिमनी की व्यथा हमारे जनतंत्र पर करारा तमाचा है। हिमनी गाँव के लोग आज भी स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर हैं। यहाँ की विडम्बना यह है कि ग्रामीण बीमार होने से बेहतर मरना समझते हैं। गाँव के रूप सिंह दाणू बता बताते हैं कि साहब एकमात्र अस्पताल 45 किमी. की दरी पर है जबकि शमशान घाट 3 किमी. दूर। जब कोई बीमार होता है तो उसे अस्पताल ले जाने में 2 दिन लग जाते हैं….. और साहब इस बीच वह मर जाय तो …? इससे अच्छा तो है कि वह गाँव में ही मर जाय…। क्योंकि शमशान घाट तो केवल 3 किमी. दूर ही है।

गाँव के रूप सिंह दाणू बता बताते हैं कि साहब एकमात्र अस्पताल 45 किमी. की दरी पर है जबकि शमशान घाट 3 किमी. दूर। जब कोई बीमार होता है तो उसे अस्पताल ले जाने में 2 दिन लग जाते हैं….. और साहब इस बीच वह मर जाय तो …? इससे अच्छा तो है कि वह गाँव में ही मर जाय…। क्योंकि शमशान घाट तो केवल 3 किमी. दूर ही है।

22 दिनों में लगभग 600 कि.मी. की पदयात्रा पूरी कर 160 से भी अधिक गाँवों का अध्ययन कर ऊखीमठ पहुँचे अस्कोट-आराकोट अभियान दल ने देखा यह हाल उत्तराखण्ड के गाँव का। अब तक अभियान दल 2487 मीटर की ऊँचाई पर बसे पाणां के साथ सड़क से 35 से 45 किमी. दूरी में बसे नामिक, कीमू, समडर, बोरबलड़ा, भरड़काण्डे और हिमनी, घेस, बलाण, सीक जैसे पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली व रुद्रप्रयाग जिले के अनेक गाँवों का अध्ययन कर चुका है। अभियान दल ने अभियान के तहत रोजाना 25-35 किमी. की यात्रा के जरिये गाँवों को गहराई से जानने की कोशिश की है। अभियान दल में अभी तक बीच-बीच में 55 यात्री शामिल हो चुके हैं। जो अलग-अलग रास्तों के जरिये गाँवों का अध्ययन कर रहे हैं। 45 दिनों तक 1000 किमी. की यात्रा करने वाले इस अभियान में 6 मुख्य यात्री हैं, जो पूरे अभियान में यात्रा करेंगे।

अब तक की 600 किमी. की अध्ययन यात्रा ने अभियान दल को उत्तरांचल की असलियत से रू-ब-रू कराया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, सड़क और अन्य कई प्रकार की समस्यायें आज भी पर्वतीय सुदूर क्षेत्रें में आम बात है। शिक्षा इन क्षेत्रों में एक बड़ी समस्या है। दूर के कई गाँवों में जहाँ विद्यालय के भवन बने तो हैं, लेकिन ठेकेदार-नौकरशाह और सफेदपोश नेताओं की मिली भगत और व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह इन भवनों की हालत जर्जर है। भवनों की हालत ऐसी है कि बरसात के दिनों में कई बार विद्यालय तालाब की शक्ल ले लेते हैं। ये दशा उत्तरांचल में निर्माण संस्थाओं में फैली कमीशनखोरी का खुला चित्र दिखाती है। और अब भ्रष्टाचार का ये रूप पहाड़ों के दूर स्थित गाँवों में भी पहुँच चुका है।

अधिकांश विद्यालयों की बागडोर केवल एक शिक्षक के हाथ में है। जिस पर 100-200 छात्रों को पढ़ाने की जिम्मेदारी है। सुदूर गाँवों में कई ऐसे विद्यालय भी हैं जहाँ एक अध्यापक भी aaa_2004_image_040 नहीं है। ऐसे कई गाँवों में मजबूर होकर गाँव वालों ने ही पैसे जमा कर शिक्षकों की व्यवस्था की है। कई गाँव ऐसे भी है जहाँ शिक्षक अपनी मनमानी करते हैं। गाँव वाले बताते हैं कि कई बार शिक्षक हफ्तों-हफ्तों तक पढ़ाने नहीं आते। पिथौरागढ़ जिले की गोरी घाटी में बसे भटभटा गाँव की प्राइमरी पाठशाला के 115 छात्र पिछले एक साल से पाठशाला में शिक्षक न होने की वजह से अपनी प्रार्थना तक भूल गये हैं। गाँव वालों का कहना है कि प्रभावशाली जिला पंचायत अध्यक्ष भी अनेक गाँवों में शिक्षक की व्यवस्था नहीं कर सके। उल्लेखनीय है कि जिला पंचायत अध्यक्ष इसी क्षेत्र से जीत कर आये हैं।

बागेश्वर जिले में दूरस्थ गाँव कीमू के प्रायमरी अध्यापक श्री यादव, जो उत्तर प्रदेश के बलिया के निवासी हैं, गाँव वालों के लिए आदरणीय बन गये हैं। गाँव वाले बताते हैं कि श्री यादव ने पिछले दो साल से एक भी छुट्टी नहीं ली है और वे बच्चों को बड़े मन से पढ़ाते हैं।

हर गाँव में यही हो ऐसा नहीं है। कुछ गाँवों में शिक्षक एक नयी मिशाल पेश कर रहे हैं। बागेश्वर जिले में दूरस्थ गाँव कीमू के प्रायमरी अध्यापक श्री यादव, जो उत्तर प्रदेश के बलिया के निवासी हैं, गाँव वालों के लिए आदरणीय बन गये हैं। गाँव वाले बताते हैं कि श्री यादव ने पिछले दो साल से एक भी छुट्टी नहीं ली है और वे बच्चों को बड़े मन से पढ़ाते हैं। इसी प्रकार अल्मोड़ा जिले की पिण्डरघाटी के भरडकाण्डे गाँव के श्री जसपाल सिंह बसेड़ा ने भी मिसाल पेश की है। जसपाल जी तमाम असुविधाओं के बावजूद सड़क से 35 किमी. दूर के इस गाँव में पिछले 20 सालों से पढ़ा रहे हैं। बागेश्वर के समदर गाँव में गजेन्द्र सिंह 22 साल तक सेना में रहे। अब गजेन्द्र जी समदर की प्राइमरी पाठशाला में शिक्षक का काम कर रहे हैं। उनका कहना है कि ऐसे दूर के इलाकों में जब कोई अध्यापक नहीं आना चाहता तो स्थानीय लोगों को ही पहल करनी पड़ेगी।

बागेश्वर के ही कर्मी गाँव के अवकाश प्राप्त सूबेदार उमराव सिंह सड़क से दूर के गाँव में एक नया प्रयोग कर रहे हैं। उमराव जी ने कर्मी में एक पब्लिक स्कूल खोला है, जहाँ वे बच्चों को सैनिक अनुशासन और शारीरिक रूप से सबल रहने का प्रशिक्षण दे रहे हैं। उनका मानना है ऐसे प्रशिक्षण से छात्रों को मानसिक ताकत के साथ शारीरिक मजबूती भी मिलती है। चमोली जिले के बैमरू गाँव ने भी लड़कियों की शिक्षा के लिए एक उदाहरण रखा है। गाँव की महिला मंगल दल की अध्यक्षा बताती हैं कि गाँव के लोगों ने मिलकर लड़कियों के पढ़ने के लिए एक हाईस्कूल खोला है। जिसमें गाँव के ही शिक्षित युवा पढ़ाते हैं। गाँव के इस जनता स्कूल की वजह से अब कई लड़कियों को पढ़ने का मौका मिल गया है। अभियान दल ने यात्रा के दौरान पाया कि उत्तरांचल के दूरस्थ गाँवों में भी शिक्षा के प्रति जबर्दस्त चेतना है, लेकिन व्यवस्था के अभाव में लड़कियों को शिक्षा से वंचित होना पड़ता है।

aaa_2004_image_022 स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत शिक्षा से भी बदतर है। शिक्षा में कहने को प्राथमिक पाठशाला गाँवों में खोले गये हैं, लेकिन स्वास्थ्य के मामले में प्राथमिक चिकित्सा के लिए लोगों को 30-45 किमी. तक पैदल जाना पड़ता है। कहीं चिकित्सा केन्द्र है, तो वहां डाक्टर नहीं है। डाक्टर हैं, तो आते नहीं है। आते हैं, तो दवाऐं और उचित उपकरण नहीं हैं। यहां तक कि कभी चोट लग जाने की स्थिति में घायलों के उपचार के लिए प्राथमिक चिकित्सा की कोई व्यवस्था नहीं है। गाँव के लोगों के लिए आज भी स्वास्थ्य का जिम्मा नीम हकीमों के हाथ में है। पिथौरागढ़ जिले के पांगू गाँव में सरकारी चिकित्सालय में डाक्टर की भूमिका अस्पताल में तैनात सफाई कर्मचारी सुखराम निभा रहे हैं। गाँव के लोगों की जिन्दगी की बागडोर आमतौर पर अप्रशिक्षित झोला छाप डाक्टरों के हाथों में है। ये कथित डाक्टर गाँव वालों के सभी रोगों का एक मात्र इलाज है। कई बार इनका इलाज ही बीमारी बन जाता है। जारा जिबली गाँव के सरपंच रूप सिंह धामी कहते हैं कुछ भी हो ये डाक्टर ही हमारे लिए एक मात्र सहारा है। अगर ये भी न हों तो गाँव वाले चोट लगने और सामान्य बिमारी में कहां जायेंगे। अगर कोई पिथौरागढ़ चला भी जाय तो क्या भरोसा कि उसे वहां चिकित्सा मिल ही जायेगी। ऐसे गाँवों में कहीं-कहीं चिकित्सालय खुले भी है तो आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक। जब कि यहां आने वाले अधिकांश पीड़ित लोग पहाड़ से गिरने, पेड़ से गिरने, जानवरो द्वारा मार देने से घायल होते हैं।
इन दूर के गाँवों में ग्रामीण तमाम सरकारी प्रचार के बावजूद पोलियो अभियान से अनभिज्ञ है। अधिकांश गाँवों में ए.एन.एम. तक की व्यवस्था नही हैं। जिससे प्रसव के दौरान महिलाओं को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है। शिक्षा की तरह स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी कुछ लोग उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं, मुनस्यारी तहसील के बिर्थी केन्द्र की ए.एन.एम. राधा भट्ट, जिन्हांने नामिक जैसे दूरस्थ अंचल तक पहुँचकर स्वास्थ्य सुविधाएँ पहुँचायी हैं। ग्रामीणों के बीच सुश्री भट्ट बहुत लोकप्रिय है।

प्रशासन की अनदेखी और सरकारी योजनाओं को सही ढंग से लागू न कर पाने के कारण इन दूरस्थ गाँवों में पीने के पानी का अभाव है। अवैज्ञानिक सोच और उचित ¬प्रबन्धन के

पाणा गाँव के गोपाल सिंह सवाल पूछते हैं कि आज तक समझ नहीं आया कि गाँव के बीच में उपलब्ध बारहमासी स्रोत को छोड़ कर इस योजना में 8 किमी. दूर से पानी लाने की कोशिश क्यों की गयी ? वे आगे बताते हैं कि एक बार फिर से 5 लाख रुपये खर्च कर इस योजना को चालू करने के प्रयास किये जा रहे हैं।

कारण पानी की योजनायें ठीक ढंग से लागू नही हो पायी है। पाणा गाँव में स्वजल योजना के अन्तर्गत 22 लाख रुपये की लागत की योजना भी गाँव वालों की पानी की समस्या दूर नहीं कर पायी है। पाणा गाँव के गोपाल सिंह सवाल पूछते हैं कि आज तक समझ नहीं आया कि गाँव के बीच में उपलब्ध बारहमासी स्रोत को छोड़ कर इस योजना में 8 किमी. दूर से पानी लाने की कोशिश क्यों की गयी ? वे आगे बताते हैं कि एक बार फिर से 5 लाख रुपये खर्च कर इस योजना को चालू करने के प्रयास किये जा रहे हैं। साफ पानी की उचित आपूर्ति के अभाव से पीलिया, डायरिया जैसे रोग आम हैं। बागेश्वर जिले की तल्ला सूपी दलित बस्ती में स्वास्थ्य शिक्षा, सुविधा और साफ पेयजल के अभाव में पिछले एक महीने में ही तीन बच्चों की डायरिया से अकाल मौत हुई है।

अनेक गाँवों में आज भी बिजली नहीं पहुंच पायी है। जिन गाँवों से बिजली की लाईनें गुजरती भी हैं, वहां के गाँवों में भी बिजली नही है। ऐसी स्थिति आज भी पिथौरागढ़ के दलित गाँव गर्जियाधार बलमरा और चामी जैसे अनेक गाँवों में देखी जा सकती है। जहाँ एक ओर 1994 में विद्युतरहित कर्मी, बदियाकोट, नामिक, कीमू में बिजली कम वोल्टेज के बावजूद उपलब्ध है, वहीं चमोली के रामणी के गाँव में 1994 से 42 लाख रुपये लागत से बनायी जा रही सौरऊर्जा प्रणाली के अब कोई अवशेष नही दिखते। कुछ स्थानों में अवैज्ञानिक समझ और उचित प्रबन्धन के अभाव की वजह से स्थापित की गई लघु जलविद्युत परियोजनायें ठप पड़ी हैं। चमोली के पडेर गाँव तथा तपोवन योजना इसका उदाहरण है। इसी तरह पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी में सुरिंग गाड़ योजना भी संकट से जूझ रही है।

सड़कों की हालत इन इलाकों में कमोवेश एक जैसी है। काली नदी से अलकनन्दा के बीच में जहां काली और निचली गोरी, निचली पिण्डर घाटी, अलकनन्दा घाटी में सड़क व्यवस्था ज्यादा दुरस्त है। जिसकी वजह से यहां छोटी गाड़ियों का सिलसिला नजर आता है। वहीं उपरी रातगंगा, सरयू, पिण्डर, मन्दाकिनी, कैल, बिरही आदि नदियों ऊपरी जलग्रहण वाले क्षेत्र में मोटर सड़क लोगों के लिए आज भी एक सपना है। यहां मोटर सड़क 30 से 40 किमी. दूर है, वहीं पैदल सड़कों की हालत भी खस्ता है। ये आश्चर्य जनक है कि 1902/03 में लार्ड कर्जन के लिए बनी अल्मोड़ा-ढाक तपोवन सड़क उन सड़कों की अपेक्षा अच्छी प्रतीत होती है, जो आजादी के बाद बनायी गई है। दुर्भाग्यवश आजाद भारत में हम इस बेहतरीन पैदल मार्ग का रख रखाव भी नहीं कर सके हैं। आज कर्जन मार्ग अनेक जगह अत्यन्त दयनीय स्थिति में है।

aaa_2004_image_102 सड़क के दूर होने से जहाँ एक ओर ग्रामीणों को बाजार से आने वाली सामग्री अत्यन्त महंगे दामों में मिलती है, वहीं गाँव में उपलब्ध उत्पादों को ठीक समय पर मोटर हैड या बाजार तक पहुंचाना महंगा पड़ता है। इन गाँवों में रहने वालों को मोटर हैड से गाँव तक जरूरी सामान के लिए 200 रुपये प्रति क्विंटल तक अधिक किराया देना पड़ता है। गाँवों की पैदल मार्गो पर पुलों की अच्छी व्यवस्था न होने से बच्चों को प्राइमरी से मिडिल स्कूल तक जाने में कठिन संघर्ष करना पड़ता है। पुलों की अच्छी व्यवस्था न होने से ग्रामीणों और उनके जानवरों के बहने की घटनायें आये दिन होती है। समडर गाँव में एक ऐसी घटना में नन्दादेवी मेले से लौटते समय शम्भू गाड़ में लकड़ी के पुल के टूट जाने से 2 महिलाएं और 1 बच्ची बह गयी। जानवरों के बहने की घटनायें इन गाँवों में हर साल की होती है।

मुनस्यारी के बाद के इलाके में टेलीफोन की सुविधा नही है। यह स्थिति ढाक तपोवन तक है। तीन जिलों तक फैले इस विस्तृत क्षेत्र के लोग ऐसी किसी भी सुविधा के लिए लालायित दिखते है। इस इलाके में पारम्परिक पोस्ट आफिस ही काम करते है, और अनेक बार ग्रामीणों को मनीआर्डर तथा रजिस्टरी के लिए मुख्य डाकघर तक मीलों पैदल जाना पड़ता है। अब तक की अध्ययन यात्रा का क्षेत्र, जो कि कैलास मानसरोवर के यात्रा पथ से बद्रीनाथ यात्रा पथ तक फैला है,जिसमें न सिर्फ ग्लेशियरों, बुग्यालों और उच्च शिखरों के कई क्षेत्र शामिल है, बल्कि कर्जन मार्ग भी इसके बीचोंबीच गुजरता है। इस क्षेत्र में संचार और मोबाईल की सुविधा दी जा सके तो पर्यटकों और पथारोहियों के साथ-साथ गाँव वालों को भी लाभ मिलेगा, और इससे आपदाओं के समय सही सूचना पहुचाने में भी आसानी होगी। aaa_2004_image_116

इन दुर्गम इलाकों में सरकारी कर्मचारी, प्रशासकों और जन प्रतिनिधियों का आना एक विरली घटना है। अनेक गाँवों ने कई सालों से अपने एसडीएम, डीएम और सांसद, विधायकों को नही देखा है। चमोली जिले के रामणी गाँव के मकर सिंह कहते है 15 साल पहले तत्कालीन जिलाधिकारी रविन्द्र सिंह के बाद अब तक कोई भी प्रशासनिक अधिकारी उनके गाँव में नही आये हैं। कुछ गाँवों के लोगों का ये भी कहना है उनके जन प्रतिनिधि ये कहते हुए उनके गावों में आने से मना करते है कि उनके वोट न देने से उन्हें कुछ फर्क नहीं पडता। प्रशासकों और जन प्रतिनिधियों के ऐसे रवैये से गाँव वालों के मन में इनके प्रति काफी गुस्सा है। 150 से अधिक गाँवों से गुजरते हुये अस्कोट-आराकोट अभियान दल के सदस्यों की कई गाँवों में महिला ग्राम प्रधानों से मुलाकात हुई। लेकिन इन महिला प्रधानों की अभी तक कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं बन पायी है। अक्सर गाँव वालों से उनके प्रधान का नाम पूछने पर वे महिला प्रधान के पति का नाम लेते हैं। जिससे पंचायती राज के इस स्वरूप पर निराशा होती है। लेकिन इन दुर्गम इलाकों में दलितों और महिलाओं का कुछ मात्र में भी प्रधान बनना एक बड़ी बात है।यात्रा क्षेत्र में अभियान दल के कुछ महत्वपूर्ण जैव परिवर्तन देखने में आये हैं। जैव विविधता के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन, जंगलों के जलने, अवैध शिकार, जड़ी-बूटियों के अवैधा दोहन से क्षेत्रीय पारिस्थितकीय सन्तुलन को गम्भीर क्षति पहुँची है। जड़ी-बूटियों के विदोहन के लिये कोई स्पष्ट नीति न होने से जहाँ बुग्यालों पर अत्यधिक दबाव पड़ रहा है, वहीं छिपला केदार, बेदनी बुग्याल मानवीय हस्तक्षेप के कारण संकट से जूझ रहे हैं। अभियान दल ने पाया कि पर्यावरण के नाम पर अपना कारोबार चलाने वाली अनेक स्वयं सेवी संगठनों ने अपनी साख पर बट्टा लगाया है। कुछ एक संस्थाओं ने अच्छा काम भी किया है और विभिन्न कार्यक्रमों में ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित कर लोकप्रियता हासिल की है।

दूरस्थ दुर्गम इलाकों में भी सांस्कृतिक बदलाव की लहर बहुत तेज है। परम्परागत गीत-संगीत की जगह आघुनिक संगीत ने ले ली हैं। सौर ऊर्जा चलित टेलीविजन ने इसे हवा दी है। इन सबके भी बीच ग्रामीणों ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं।

अभियान दल ने पाया कि दूरस्थ दुर्गम इलाकों में भी सांस्कृतिक बदलाव की लहर बहुत तेज है। परम्परागत गीत-संगीत की जगह आघुनिक संगीत ने ले ली हैं। सौर ऊर्जा चलित टेलीविजन ने इसे हवा दी है। इन सबके भी बीच ग्रामीणों ने अनेक अभिनव प्रयोग किये हैं। कर्मी जैसे गाँव में ये परिवर्तन साफ दिखाई देते हैं। कर्मी घाटी में सड़क के नजदीक आने से बदलाव तेज हुआ है। सांस्कृतिक उत्सव के रूप में तीन दिन के सांस्कृतिक मेलों में इनामी धमाके वाली दुकानों के साथ-साथ चाऊमीन और पेप्सी जैसी वस्तुयें आकर्षण का केन्द्र बनी हैं। इस घाटी में सरकारी स्कूलों के साथ-साथ स्थानीय प्रयासों से किन्डर गार्डन जैसे स्कूल खुल गये हैं।

अस्कोट-आराकोट अभियान की चौथी यात्रा में सदस्यों को सामान्य अनुभव रहा कि यात्रा के अधिकांश क्षेत्र आज भी ठहराव की स्थिति में हैं। कुछ क्षेत्रें में बदलाव जरूर आया है लेकिन इसकी गति बहुत धीमी है। कुछ इलाकों में बदलाव की गति इतनी तेज है कि इसके साथ भ्रष्टाचार, अपराध और नशे का तंत्र भी तेजी से फैला है। शराब के रूप में नशा इन क्षेत्रें में अपनी पकड़ तेज कर रहा है। महिलाएँ जहाँ शराब के विरोध में लामबन्द हुई हैं, वहीं रोजगार के अभाव में कई युवा इस धन्धों में लगे हुये हैं। सैनिकों को मिलने वाली शराब ने भी इस नशे को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है। पिछली आधी शताब्दी में अपनायी गयी सरकारी नीतियों ने समाज की आत्मनिर्भरता को ध्वस्त कर अकर्मण्य और असहाय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

गिरिजा पाण्डे तथा रघुवीर चंद, नैनीताल

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3 Thoughts to “कितना बदला है पहाड़ों का हाल?”

  1. Anonymous

    इस लेख ने हिला दिया, उत्तराखण्ड में विषम भौगोलिक परिस्थिति से होने वाली विषमता को तो मैं भी थोड़ा-बहुत जानता था, लेकिन चमोली जनपद के ग्रामवासी की टिप्पणी ने झकझोर दिया "अस्पताल ४५ किमी० दूर है और श्मशान ३" आजादी के ६० साल और पृथक उत्तराखण्ड राज्य के भी ८ साल होने के बाद ऎसी प्रतिक्रिया। shame shame

    jaago netao jaago salo, kamcoro…………….

  2. dspatwal

    UTTRAKHAND MEI HI NAHI SARE DESH MEI HI AINSA NETA NAHI HAI JO DESH KI HALAT SUDHAR SAKE SALE SAB K SAB NETA HARAMI AUR GIREY HUYE HAI JINKI KOI IMAN DHARM NAHI HOTA

  3. namaskar dagdiyo me tumar dagdun

    me maldhan chour shivnath pur new basti ka rehne wala hu I mujhe bhut khushi hai ki mera janam uttarakhand me huwa hai me bhagwan se din rat yhi prathana karta hu ki hai bhagwan me apka abhari hu jo apne mujhe es dev bhume uttarakhand me janam diya I yha ke ritee riwaj or param praye mujhe bhut acche lagte hai .

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